कभी-कभी पहाड़ों में हिमस्खमलन सिर्फ एक ज़ोरदार आवाज़ से ही शुरू हो जाता है

Wednesday, November 19, 2014

"अच्छे दिनों" में बुरा समय



बीते कुछ महीनों से हर दिन यह प्रचार सुना जा रहा है कि अच्छे दिनआने वाले हैं और अब देश के “विकासका समय आ गया है। लेकिन कुछ महीने बीत जाने के बाद यह पता चल चुका है कि किसके अच्छे दिन और किसके विकास की बात हो रही थी। ध्यान दें तो अच्छे दिनआने के बाद पूँजीपतियों और शेयर बाजार के दलालों का मुनाफ़ा लगातार ऊपर चढ़ रहा है। नई सरकार बनने के पहले ही दिन अम्बानी और अदानी ने 7800 करोड़ का फायदा कमाया था। लेकिन अपने आस-पास समाज में लोगों का सर्वे करें तो गाँव के किसानों से लेकर शहर में काम करने वाले मजदूरों के हालात देख कर हम कह सकते हैं कि मजदूरों, किसानों, छात्रों और काम की तलाश में भटकने वाले करोड़ों बेरोजगार नौजवानों के वास्तविक जीवन पर अभी तक अच्छे दिनका कोई असर नहीं दिख रहा है। आज भी आम मेहनतकश मजदूरों और किसानों को विशेषाधिकार प्राप्त अफशरसाही, ठेकेदारों तथा पूँजीवादी दलालों द्वारा किये जा रहे अपराधों और कानूनों के उल्लंघन के विरुद्ध आवाज उठाने में काफी संघर्ष करना पड़ रहा है और उनके जिन्दा रहने के अधिकारों तक की सुनवाई के लिये अभी भी कोई विकल्प उनके सामने नहीं है।
अच्छे दिनआने के बाद कुछ आंकड़ों को देखें तो अनेक दवाइयों के दामों में कई गुना बढ़ोत्तरी हुई है जिनमें कैंसर की दवा के दाम 13 गुना बढ़कर 1.08 लाख हो चुके हैं। एक ओर बुलेट ट्रेन चलने वाली है और दूसरी ओर आम रेलों का किराया काफी महंगा कर दिया गया है। जनता के लिये चलाई जा रहीं कल्याणकारी योजनाओं में भी लगातार कटौती के संकेत दिख रहे हैं, और इसके साथ ही 1990 से कांग्रेस शासन में जारी निजीकरण-उदारीकरण को और आगे ले जाते हुये काम करने वाली आम आबादी के अधिकारों के लिये बने कानूनों को लगातार और भी कमजोर किया जा रहा है जिससे मेक इन इण्डियाके नाम पर साम्राज्यवादियों के सामने देश के वर्क फोर्स की बोली लगाने में आसानी हो सके और जनता की मेहनत को निजी मुनाफे की भेंट चढ़ा दिया जाये।
आज देश के हर नागरिक को प्रचार के माध्यम से फैलाये जा रहे इन भ्रमों को समझना होगा जिससे आने वाले समय में जनता के हाथों वास्तव में अच्छे दिनों का सूत्रपात करने के लिये वास्तव में नई व्यवस्था खड़ी की जा सके।
जनसत्ता (14 नवम्बर) में प्रकाशित -

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