कभी-कभी पहाड़ों में हिमस्खमलन सिर्फ एक ज़ोरदार आवाज़ से ही शुरू हो जाता है

Tuesday, September 24, 2013

कब खुलेगी आस्था की अंधी पट्टी आँखों से?



अपने अन्तिम दिनों में जेल से शहीद भगतसिंह ने एक लेख मैं नास्तिक क्यों हूँ” (1930) में लिखा था, “यथार्थवादी होने का दावा करने वाले को समूचे पुरातन विश्वास को चुनौती देनी होगी। यदि विश्वास विवेक की आँच बर्दाश्त नहीं कर सकता तो ध्वस्त हो जायेगा।पिछले कुछ दिनो में कई ऐसी घटनायें घटीं जिसने धर्म और पूँजीवादी राजनीति के अपवित्र गठजोड़ की असलियत को जनता की आँखों के सामने नंगा कर दिया। पुणे में अन्धविश्वास के विरुद्ध प्रचार करने वाले डा. दाभोलकर की हत्या कर दी गई और दूसरी ओर धर्म का धन्धा चलाने वाले धर्मगुरूआसाराम का असली चेहरा लोगों के सामने उजागर हो गया। धर्म, तन्त्र-मन्त्र, ज्योतिष आदि के नाम पर करोड़ों का व्यापार चलाने वाले इन पाखण्डी ‘‘संतों‘‘ के अड्डों पर क्या-क्या आपराधिक काम होते हैं इसकी असलियत भी सामने आ रही है। उदारीकरण-निजीकरण की लुटेरी आर्थिक नीतियों के कारण पिछले 23 साल में इस देश में एक ऐसा परजीवी धनिक वर्ग पैदा हुआ हैजो तमाम किस्म के उल्टे-सीधे धंधे करके धनी बन गया है। तमाम कुकर्म, अपराध, और भ्रष्टाचार करके इसी वर्गके लोग फिर अपनी ‘‘मन की शान्ति‘‘ के लिये ऐसे ढोंगी ‘‘संतों‘‘ और बाबाओं का सामाजिक आधार बनते हैं। आसाराम को बचाने में हर जगह यही धनपशु लगे हुए हैं जबकि आम जनता आसाराम के धंधे की हक़ीक़त समझ रही है। धर्म के नाम पर ज़मीन कब्जाना, सम्पत्ति इकट्ठा  करना, विरोधियों की हत्या कराना, खु़द को भगवान का अवतार बताकर महिलाओं के साथ दुराचार करना जैसे आरोप अनगिनत बाबाओं-संतों पर लग चुके हैं। ये सभी जनता की धार्मिक भावनाओं को भुनाकर करोड़ों का धंधा चला रहे हैं।
धर्म को मानने की सभी को व्यक्तिगत स्वतन्त्रता है लेकिन इसके नाम पर धन्धा चलाने और अपने आप को लोगों के ऊपर धर्म-गुरू के रूप में थोपने वाले इन राजनीतिक एजेण्टों से हर व्यक्ति को सावधान करने की आवश्यकता है, जो साम्प्रदायिक माहौल बिगाड़कर लोगों को उनकी समस्या के मुख्य मुद्दों से भटकाते हैं और अन्याय-अपराध और लूट पर टिकी वर्तमान व्यवस्था की राजनीतिक रूप से सहायता करते हैं। वास्तव में धर्म की आड़ में यह राजनीतिक प्रचार ही करते हैं। अंधविश्वास का प्रचार करने वाले और लोगों को अज्ञानता और मूर्खता के दलदल में फंसाकर रखने वाले इस तरह के सभी धार्मिक व्यापारियों का भण्डाफोड़ होना चाहिये, जो धर्म के बहाने लोगों को अपनी वास्तविक स्थितियों के प्रति असंवेदनशील बनाते हैं और अपनी तिजोरियाँ भरते हैं। भगतसिंह के शब्दों में, “समाज ने जिस प्रकार मूर्तिपूजा और धार्मिक कर्मकाण्डों के विरुद्ध संघर्ष किया है, उसी प्रकार उसे इस विश्वास के विरुद्ध भी संघर्ष करना होगा। इंसान जब अपने पैरों पर खड़ा होने की कोशिश करेगा और यथार्थवादी बनेगा, तो उसे अपनी आस्तिकता को झटक कर फेंक देना पड़ेगा और परिस्थितियाँ चाहे उसे कैसी भी मुसीबत और परेशानी में डाल दें, उनका सामना करना पड़ेगा।










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